रविवार, अगस्त 29, 2010

गमोँ की झलक से जो डर जाते हैँ।

 गमोँ की झलक से जो डर जाते हैँ।
 वो जीने से पहले ही मर जाते हैँ।।

        रुठे हो किनारे भी जिन से।
        वो डूबकर भी पार उतर जाते हैँ।।

 यादोँ की टीस कहाँ जाती हैँ।
 जख्म तो वक्त के साथ भर जाते हैँ।।

      खौफ कितना हैँ हमारे अन्दर।
      अपनी साँस की शोर से ही डर जाते हैँ।।

 शबनम के सुरुर की तरह हँस-रोकर।
 सबके दिन रात तो गुजर जाते हैँ।।

        बे-शऊर हम तेरी नादानी से।
        उनकी नजरोँ से उतर जाते हैँ।।

शनिवार, अगस्त 14, 2010

तुम ऐसे मेँ क्यूँ रुठ जाती हो?



तुम ऐसे मेँ क्यूँ रुठ जाती हो?
सावन है सावन मेँ क्यूँ दूर जाती हो?

प्रिये तुम मुझे बहुत याद आती हो?
रातोँ को तनहाईयोँ मेँ क्यूँ छोड़ जाती हो?

मन मेँ मेरे तुम प्यास जगाती हो,
मगर दिल की धड़कन क्यूँ बढ़ाती हो?

पाँव की पायल रातोँ को छनकाती हो,
दिलोँ के तार क्यूँ छेड़ जाती हो?

तन, बदन तुम मेरा महका जाती हो?
खूश्बू की तरह दिल मेँ क्यूँ समाती हो?

परिन्देँ

पूछता कौन है परिन्दे से,
तू किस डाली का महमान हैँ।

बैठ जाये तू जिस डाली पे,
बस वही तेरा जहान हैँ।।

रविवार, अगस्त 08, 2010

चाँद की ख्वाहिश

कौन कहता है जमीँ सें,
छुआ नहीँ जा सकता आँसमान।

नहीँ था जब भूखा,इस तथ्य से था "अंजान";
चन्द्रमा भी लगता था मुझे प्रेयसी के समान ।।

शिकार को निकला था जंगल मेँ,
भूख से था मैँ परेशान।

गरिमा से ज्योति बिखेरता चन्द्रमा,
लगता था मुझे एक बड़ी रोटी के समान।।