सोमवार, दिसंबर 27, 2010

नज़रेँ मिलाके ना नज़रेँ झुकाओ


आवाज देके ना मुझको बुलाओ ,
घबराता हूँ मैँ अब आवाज से ।

नज़रेँ मिलाके ना नज़रेँ झुकाओ ,
क्यूँ जुल्म ढाती हो इस अंदाज़ से ।

रविवार, दिसंबर 19, 2010

ना जाते थे किसी दर पे हम


ना जाते थे किसी दर पे हम
जब रखा किसी दर पे सर
तो सर को उठाना भूल गये।

सोचा था उनका करेँगे कत्ल
सामने आये जो नायाब सनम्
तो उनपे तलवार उठाना भूल गये।

रविवार, दिसंबर 12, 2010

कितनी बेजार है ये दुनियाँ


कितनी    बेज़ार    है    ये     दुनियाँ ,
कोई किसी का इंतजार नही करता ,

हूकूमत   करता   है दिले-यार पे ,
मगर उसे प्यार नही करता ,

रविवार, दिसंबर 05, 2010

एक चर्तुभुज बनाके छोड़ा मुझे


एक   चर्तुभुज    बनाके    छोड़ा    मुझे ,
कभी वर्ग बनाया, कभी त्रिभुज बनाया

ये    कैसी   कयामत    आई,   ये    कैसा   जुल्म    ढाया
कभी परिमाप से मापा मुझे, कभी क्षेत्रफल मेँ नपाया।

रविवार, नवंबर 28, 2010

दो दिल टूटे , बिखरे टूकड़े सारे


दो दिल टूटे , बिखरे टूकड़े सारे,
तड़प तड़प वो दिन कैसे गुजारे,

रह रह के दिल मेँ टीस उठती है,
इस कदर जैसे कोई खंजर मारे हमारे,

शनिवार, नवंबर 20, 2010

यादेँ और तन्हाईयाँ


शायद याद भी नही आती होगी,
उनको हमारी वहाँ पर।

याद मेँ कटी है ये रात कैसे हमारी,
जलती शमां बयाँ कर रहीँ है यहाँ पर।

रविवार, नवंबर 14, 2010

जो भी पाया था कभी खुदा से मैँने

जो भी पाया था कभी खुदा से मैँने
कुछ पल ही रूका था वो पास मेरे

वक्त की अगर कोई सीमा होती तो
वो कद्र करता हर जज्बात की मेरे

शनिवार, नवंबर 06, 2010

अश्कोँ को वो अपने छुपाती हैँ

दिल लेके तंगदिली दिखाती हैँ
इश्के राहेँ मुश्किल बताती हैँ

रातोँ को वो सपने सजाती है
दिनोँ को वो खुद से घबराती हैँ

रविवार, अक्तूबर 31, 2010

जुबाँ की खामोशी

देखकर मुझे ही निगाह, उसकी उठी होगी ,
कोई उसे शायद सतह ना मिली होगी।

लब तो हिले थे उसके, कहना कुछ चाहती होगी,
क्यूँ, मगर कैसे ? वो जुबाँ खामोश रही होगीँ।

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

नजर-नजर से मिले तो कोई बात बने,

नजर-नजर से मिले तो कोई बात बने,
वो हमसफर मेरा बने तो कोई बात बने।

दिल-दिल से मिले तो कोई बात बने,
धडकन कोई मेरी बने तो कोई बात बने।

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

आँखोँ मेँ काजल लगा दे रे

मेरा आया यौवन,
    मेरा घूघंटा उठा दे रे।
       मैँ दुल्हन सी लगती हूँ ,
           कोई मुझे दुल्हन बना दे रे।।

    मुझे नीँद ना आये ,
       कोई आँखोँ मेँ,
          काजल लगा दे रे ।
            पाँव मेँ लगे अगन ,
               कोई इनमेँ मेँहदीँ सजा दे रे ।।

रविवार, अक्तूबर 10, 2010

जाने किस बात की सजा देती हो?

जाने किस बात की सजा देती हो?
मुस्कुराती हुई आँखोँ को रूला देती हो।

    देखना चाहता हूँ जब भी नजर भरके ,
    किस अंदाज से नजरोँ को झुका देती हो?

जब भी तोड़ता हूँ गुलशन से गुलाब ,
धीरे से आकर काँटा चुभा देती हो।

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

जमीँ पे है चाँद छुपा हुआ

ना जाने क्या हुआ
     जो तूने छू लिया,
         शरीर मेँ लहू दौड़ने लगा
              कुछ नशा-सा हुआ।।


आँखोँ मेँ मेरी झाँककर
     जब तूने चेहरा झुका लिया,
          लगा मुझे जैसे जमीँ पे
                है चाँद छुपा हुआ।।

रविवार, सितंबर 26, 2010

तपा सकेँ अगर सोना तो हृदय मेँ अगन होँनी चाहिए।

हो चुके बहुत उपाय अब तो कुछ बदलना चाहिए।
इंसान को वक्त के साथ ही बदल जाना चाहिए।।

    खेलकर आग से जलाये हमने बहुत-से घर, शहर।
    अब तो बर्फ की मानिद पिघल जाना चाहिए ।।

सुगंध इस गुलशन की खोई हुई है कहीँ ।
इस गुलशन को अब तो फिर से संभारना चाहिए ।।

रविवार, सितंबर 19, 2010

ऐ चाँद बता तु तेरा हाल क्या है ?

ऐ-चाँद बता तू ,
  तेरा हाल क्या हैँ ?
    किस जुस्तजू मेँ ,
      तू फँसा हुआ ?
        क्यूँ छाया हुआ
          घनघोर अँधेरा ।
            बता तेरी चाँदनी
               को हुआ क्या हैँ ?

रविवार, सितंबर 12, 2010

जिसको तुम अपना कहते हो यारो , बहम तुम्हारा है।

खो जाने दो मुझको यारो , उन गुमनाम अंधेरोँ मेँ ।
 लौटे जहाँ से कोई ना सुरज , आते देख सवेरोँ मेँ।।
  
       पोछो मत तुम मेरे आँसू , इनको अब बह जाने दो ।
       देखेगा जब कोई इनको , अपनी व्यथा सुनाने दो।।

 मेरी तड़पन मेरे दिल से , यारो अब तुम मत पूछो ।
 जहाँ ले चली राहेँ मुझको , जाने दो तुम मत रोको।।

सोमवार, सितंबर 06, 2010

जब तन्हा होँ किसी सफर मेँ

जब तन्हा होँ किसी सफर मेँ,
तब गीत मेरा तुम गा लेना।

     घुमड़ रहे होँ जब सोचो के बादल,
     तब तुम बर्षा बनकर रो लेना।

जब याद सताये किसी हमसफर की,
तब कल्पित मूरत तुम उसकी बना लेना।

     बेकरारी हद से जब बढ़ती जाये,
     संदेश उसे तुम अपना भिजबा देना।

बिन उसके जब जिया ना जाये,
तब दिल मेँ उसे तुम बसा लेना।
    
       लगने लगे जब ऊचाईयोँ से डर।
       इस जमीँ को थोड़ा ऊपर उठा लेना।

रविवार, अगस्त 29, 2010

गमोँ की झलक से जो डर जाते हैँ।

 गमोँ की झलक से जो डर जाते हैँ।
 वो जीने से पहले ही मर जाते हैँ।।

        रुठे हो किनारे भी जिन से।
        वो डूबकर भी पार उतर जाते हैँ।।

 यादोँ की टीस कहाँ जाती हैँ।
 जख्म तो वक्त के साथ भर जाते हैँ।।

      खौफ कितना हैँ हमारे अन्दर।
      अपनी साँस की शोर से ही डर जाते हैँ।।

 शबनम के सुरुर की तरह हँस-रोकर।
 सबके दिन रात तो गुजर जाते हैँ।।

        बे-शऊर हम तेरी नादानी से।
        उनकी नजरोँ से उतर जाते हैँ।।

शनिवार, अगस्त 14, 2010

तुम ऐसे मेँ क्यूँ रुठ जाती हो?



तुम ऐसे मेँ क्यूँ रुठ जाती हो?
सावन है सावन मेँ क्यूँ दूर जाती हो?

प्रिये तुम मुझे बहुत याद आती हो?
रातोँ को तनहाईयोँ मेँ क्यूँ छोड़ जाती हो?

मन मेँ मेरे तुम प्यास जगाती हो,
मगर दिल की धड़कन क्यूँ बढ़ाती हो?

पाँव की पायल रातोँ को छनकाती हो,
दिलोँ के तार क्यूँ छेड़ जाती हो?

तन, बदन तुम मेरा महका जाती हो?
खूश्बू की तरह दिल मेँ क्यूँ समाती हो?

परिन्देँ

पूछता कौन है परिन्दे से,
तू किस डाली का महमान हैँ।

बैठ जाये तू जिस डाली पे,
बस वही तेरा जहान हैँ।।

रविवार, अगस्त 08, 2010

चाँद की ख्वाहिश

कौन कहता है जमीँ सें,
छुआ नहीँ जा सकता आँसमान।

नहीँ था जब भूखा,इस तथ्य से था "अंजान";
चन्द्रमा भी लगता था मुझे प्रेयसी के समान ।।

शिकार को निकला था जंगल मेँ,
भूख से था मैँ परेशान।

गरिमा से ज्योति बिखेरता चन्द्रमा,
लगता था मुझे एक बड़ी रोटी के समान।।

गुरुवार, जुलाई 22, 2010

बादल

बादल पे करके भरोसा,
बरसात की जो आस बंधी।

आया हवा का जो एक झोका,
बदली ना जाने कहाँ उड़ चली।।

मंगलवार, जुलाई 13, 2010

युगान्तर

राम युग मेँ दूध दिया,
कान्हा युग मेँ घी।

कलयुग मेँ शराब दी,
इसे सोच समझ कर पी।।

मंगलवार, जुलाई 06, 2010

नारी की लाचारी

मैँने अखबार मेँ पढ़ा कि एक महिला से उसके शराबी पति ने शराब के लिए पैसे माँगे जो कि उसके पास नहीँ थे तो उसने मना कर दिया। फिर पति ने मंगलसूञ माँगा बेचकर शराब लाने के लिए तो उसने कहा ये मेरा सुहाग है इसे मैँ नहीँ दुँगी ।इतने पर पति ने महिला के मुँह पर तेजाब फेँक दिया और मँगलसूञ तोड़कर भाग गया। मैँने इस घटना को इन शव्दोँ मेँ ब्यान किया हैँ ।.....................

सोमवार, जुलाई 05, 2010

एक फकीर की मौत

देखो फुटपाथ पे पड़ा है फकीर,
भूख और ठण्ड़ से मरा होगा।

हो गई है लो अब सहर,
फूल और मालाओँ से सजाय जायेगा।।

करके पैसा इकट्ठा हुजूम,
अब ढकने को इसे कफन लाएगा।

जल्द दफना के कब्र मेँ इसे,
अकड़ने से बचाया जायेगा।

बन जायेगा यूँ इसका मकबरा,
अब इसे पूजा जायेगा।।

मेरा भ्रम

ना जमीँ हैँ, ना आसमाँ,
जाने पड़े हैँ,कदम मेरे कहाँ?

यह भ्रम ही है मेरा
या है मेरी ही दास्ताँ?

चले हैँ हम जाने कहाँ?
नहीँ है यहाँ कोई रास्ता!

सभी कुछ तो है बस तेरे सिवा यहाँ,
तू ही नहीँ है बस, है सारा जहाँ यहाँ!

दिल है, जिगर है, हिम्मत है,
बस नहीँ है तो तेरे करीब आने का रास्ता!

दिल लगाने की सजा

हमने दिल लगा तो लिया है उनसे,
मगर दिल लगाने की सजा पाई हैँ।

लोग पत्थरोँ से चोट खाते हैँ,
हमने तो फूलोँ से चोट खाई हैँ।।

तमन्ना थी हमको सुहाने मौसम की,
मगर क्यूँ गमोँ की बरसात पाई हैँ।

कहते हैँ लकीरोँ मेँ तकदीर लिखी होती है,
मगर हमनेँ लकीरोँ से ही मात खाई है।।

गालिब ने दुआ दी जिँदगी हजार साल हो,
मगर सालोँ की जिँदगी दिनोँ मेँ बिताई हैँ।

जुग्नूँ बनके आया शमाँ के पास रोशनी के लिए,
मगर शमाँ ने तो मौत की सौगात दी है।।

गुरुवार, जुलाई 01, 2010

गोलियाँ

आजाद होके खूब,बरसतीँ हैँ गोलियाँ।
लोगोँ को मार-मार के हँसती हैँ गोलियाँ ।।

निर्दोष जिँदगी के घरोँ को उझाड़ कर,
बस्ती मेँ बिना खौफ के बसतीँ हैँ गोलियाँ ।

जिस दिन से यहाँ राजपथ हुआ ।
कानून उसी दिन से यहाँ लाईलाज है ।।

संवेदनाएँ भूनती बस से उतार कर ।
सच्चाई ढूढ़ - ढूढ़ कर डसतीँ हैँ गोलियाँ ।।

भूखोँ तड़प - तड़त कर कोई दम ना तोड़ना ।
महँगाई के भी दौर मेँ सस्ती हैँ गोलियाँ ।।