गुरुवार, जुलाई 01, 2010

गोलियाँ

आजाद होके खूब,बरसतीँ हैँ गोलियाँ।
लोगोँ को मार-मार के हँसती हैँ गोलियाँ ।।

निर्दोष जिँदगी के घरोँ को उझाड़ कर,
बस्ती मेँ बिना खौफ के बसतीँ हैँ गोलियाँ ।

जिस दिन से यहाँ राजपथ हुआ ।
कानून उसी दिन से यहाँ लाईलाज है ।।

संवेदनाएँ भूनती बस से उतार कर ।
सच्चाई ढूढ़ - ढूढ़ कर डसतीँ हैँ गोलियाँ ।।

भूखोँ तड़प - तड़त कर कोई दम ना तोड़ना ।
महँगाई के भी दौर मेँ सस्ती हैँ गोलियाँ ।।

2 टिप्पणियाँ:

DR.ASHOK KUMAR ने कहा…

प्रिये साथियो , मेरे इस ब्लोग " संसार " पर आप सभी का स्वागत हैँ ।

Amlendra k singh ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। शुभकामनायेँ