रविवार, अक्तूबर 03, 2010

जमीँ पे है चाँद छुपा हुआ

ना जाने क्या हुआ
     जो तूने छू लिया,
         शरीर मेँ लहू दौड़ने लगा
              कुछ नशा-सा हुआ।।


आँखोँ मेँ मेरी झाँककर
     जब तूने चेहरा झुका लिया,
          लगा मुझे जैसे जमीँ पे
                है चाँद छुपा हुआ।।

11 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत खूबसूरत भाव।

उपेन्द्र कुमार सिंह ने कहा…

नमस्कार अशोक जी!!!!!!!
बहुत बढिया लिखा है.............
पढ कर अच्छा लगा.............
हमने भी कुछ ठीक ठाक सा लिखा है
कृपया एक नज़र डालें

मनोज कुमार ने कहा…

वाह! वाह!! बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
आयी हो तुम कौन परी..., करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!

रंजू भाटिया ने कहा…

सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति है इन पंक्तियों में शुक्रिया

दीपक बाबा ने कहा…

बहुत बढिया भाव हैं जी - जमी पर चाँद.

हमें तो एक भी न दिखा - जो दिखा आस्मां पर ही दिखा.

Ramesh singh ने कहा…

जमीँ पे चाँद वाह! क्या बात है। खूबसूरत जज्बातोँ से सजी सुन्दर रचना के लिए बधाई।

somadri ने कहा…

टीस बड़ी खूबसूरती से उभर कर आई है

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

अच्छी रचना...बधाई.

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति। बहुत बढिया भाव हैं जी
हार्दिक शुभकामनाएं!

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

jnaab bhut khub nyaa andaaz he gaagr men sagr bhrne kaa andaz psnd aayaa . akhtar khan akela kota rajsthan

हरिदयाल तिवारी "तन्हा" ने कहा…

दर्द अब छुप रहे थे
अहसास तक मिट गए थे !!
फीर से हरे हो गए .
फिर से ताज़े हो गएँ !!
यूं तो काम है आईने और शायरों का जख्म को दीखाना
पर इल्त्त्जा है इतना तुम आईना न बनना.
बहूत बहूत बहूत बधाई