जाने किस बात की सजा देती हो?
मुस्कुराती हुई आँखोँ को रूला देती हो।
देखना चाहता हूँ जब भी नजर भरके ,
किस अंदाज से नजरोँ को झुका देती हो?
जब भी तोड़ता हूँ गुलशन से गुलाब ,
धीरे से आकर काँटा चुभा देती हो।
ख्यालोँ मेँ आकर जख्म देती हो,
फिर जाने किस मर्ज की दवा देती हो?
सोए हुए है यादोँ मेँ तुम्हारी ,
साँस की छुअन से जगा देती होँ।
ढूढ़ा है वादी मेँ जब भी तुमको,
जुग्नू की तरहा रास्ता दिखा देती हो।
"अंजान" चाहता है लिखना गजल तुम पे,
दबे पाँव आकर क्यूँ शेअरोँ को मिटा देती हो।।
महिलाओं और पुरुषों में बांझपन (इनफर्टिलिटी) को ऐसे करें दूर।
-
आज के बदलते लाइफस्टाइल के कारण इंफर्टिलिटी की समस्या बहुत देखने को मिल रही
है। पुरुष हो या महिला इंफर्टिलिटी के कारण पेरेंट्स बनने का सपना अधूरा रह
...
3 वर्ष पहले
28 टिप्पणियाँ:
अंजान" चाहता है लिखना गजल तुम पे,
दबे पाँव आकर क्यूँ शेअरोँ को मिटा देती हो।
-वाह! बहुत खूब.
उनकी याद आये जब, सभी कुछ भूल जायें हम,
उन्हे फिर भी शिकायत है कि हम कुछ लिख नहीं पाये।
क्या कहूँ इस गज़ल के लिये………………हर शेर बेहद हसीन दिल मे उतरने वाला है………………ये प्रेम भरी शिकायत जिस अन्दाज़ मे की है अपने साथ बहा ले गयी।
बहुत बढ़िया लेखन...
मन प्रशन्न हो गया...
समीर जी , वन्दना जी , प्रवीण जी तथा अंकुर जी आपकी स्नैह रूपी तथा उत्साहबर्धक टिप्पणीयोँ के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।
समीर जी , वन्दना जी , प्रवीण जी तथा अंकुर जी आपकी स्नैह रूपी तथा उत्साहबर्धक टिप्पणीयोँ के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।
बेहतरीन भावों को पिरोए अच्छी ग़ज़ल।
अंजान" चाहता है लिखना गजल तुम पे,
दबे पाँव आकर क्यूँ शेअरोँ को मिटा देती हो।
बहुत ही भावपूर्ण रचना......
ये पंक्तियाँ तो बहुत ही खूबसूरत हैं.....लाजवाब
Beautiful.
www.the-royal-salute.blogspot.com
जब भी तोड़ता हूँ गुलशन से गुलाब ,
धीरे से आकर काँटा चुभो देती हो।
ख्यालोँ मेँ आकर जख्म देती हो,
फिर जाने किस मर्ज की दवा देती हो?
वाह खूब लिखा है ...सुन्दर
मनोज जी , रोली पाठक जी, Sumant ji तथा संगीता स्वरूप जी आपकी स्नैही और उत्साहबर्धक टिप्पणीयोँ के लिए हार्दिक धन्यवाद। आप अपने स्नैह से इसी तरह ही अनुग्रहित करते रहियेगा।
ढूढ़ा है वादी मेँ जब भी तुमको,
जुग्नू की तरहा रास्ता दिखा देती हो।
Aakhir jisse hum beintha mohabat karte hain eah humare liye sabkuch hota ,
Sikayat ka andaj pasand aaya ...!
Sunder gajal
Shubhkamnayen
मेरि तरफ से मुबारकबादी क़ुबूल किजिये.
ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
bahot sunder bhaw.
ghzl men bhr mitr rdif qaafiye kaa taalmel ke sath ritdhm bhi helekin khaas bat yeh he ke is ghzl me drd ka bhut bhut ehsas he mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthan
...बहुत ही सुंदर गजल का लुफ्त उठा रही हूं मै!....बार बार पढ कर भी मन नही भरता!
बहुत खूब .....
वो कौन हैं जो आपके हुनर को अनजाने में सबका दुलारा बना देती है
ढूढ़ा है वादी मेँ जब भी तुमको,
जुग्नू की तरहा रास्ता दिखा देती हो।
बहुत सुन्दर कहा है. सुन्दर ग़ज़ल के लिए आभार.
जब भी तोड़ता हूँ गुलशन से गुलाब ,
धीरे से आकर काँटा चुभो देती हो।
बहुत खूब .....!!
ढूढ़ा है वादी मेँ जब भी तुमको,
जुग्नू की तरहा रास्ता दिखा देती हो।
"अंजान" चाहता है लिखना गजल तुम पे,
दबे पाँव आकर क्यूँ शेअरोँ को मिटा देती हो।।
बहुत खूब
वाह वाह! बहुत खूब!
wah... khoob....bahut khoob
बहुत खूब!!!
अंजान" चाहता है लिखना गजल तुम पे,
दबे पाँव आकर क्यूँ शेअरोँ को मिटा देती हो।
बहुत खूब। मगर इसकी एक बार मात्रा गणना फिर से कर लें। शुभकामनायें
ढूढ़ा है वादी मेँ जब भी तुमको,
जुग्नू की तरहा रास्ता दिखा देती हो ...
पूरी ग़ज़ल प्रेम की खुश्बू से महक रही है ... लाजवाब ....
वाह! डॉक्. साब बढ़िया लगी आपकी ग़ज़ल। पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ओशो वन ब्लॉग के थ्रू। अब नियमित रूप से आऊँगा। बधाई।
डॉ. ‘अनजान’ जी,
नमस्कारम्!
सुन्दर व भावपूर्ण अभिव्यक्ति है...बधाई!
हाँ... एक विशेष बिन्दु पर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहूँगा कि अनेक स्थानों पर आपसे जाने-अनजाने में चन्द्रबिन्दु (अनुनासिक) का अनावश्यक प्रयोग हो गया है। जैसे-
आँखोँ (सही शब्द होगा : ‘आँखों’)
नजरोँ
ख्यालोँ
यादोँ
मेँ
शेअरोँ
इसे अन्यथा न लें....तथास्तु!
एक टिप्पणी भेजें