जो भी पाया था कभी खुदा से मैँने
कुछ पल ही रूका था वो पास मेरे
वक्त की अगर कोई सीमा होती तो
वो कद्र करता हर जज्बात की मेरे
पाने की आरजू मेँ जिसे जीये जा रहा हूँ मैँ
वो ही घटा रहा है क्यूँ धड़कने दिल की मेरे
बना करते हैँ अगर रिश्ते सभी विश्वास की डोर से
फिर घटा ही क्युँ रहा है वो विश्वास को मेरे
मिलती है सभी को अगर मौहब्बत नसीबोँ के खेल से
फिर मिटा क्यूँ रहा है लकीरोँ को हाथोँ से मेरे
महिलाओं और पुरुषों में बांझपन (इनफर्टिलिटी) को ऐसे करें दूर।
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आज के बदलते लाइफस्टाइल के कारण इंफर्टिलिटी की समस्या बहुत देखने को मिल रही
है। पुरुष हो या महिला इंफर्टिलिटी के कारण पेरेंट्स बनने का सपना अधूरा रह
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3 वर्ष पहले
27 टिप्पणियाँ:
भगवान की कृपा दृष्टि बने रहे उनके प्रशंसकों पर।
बना करते हैँ अगर रिश्ते सभी विश्वास की डोर से
फिर घटा ही क्युँ रहा है वो विश्वास को मेरे..
बनाये रखिये विश्वास ....अच्छी प्रस्तुति
मिलती है सभी को अगर मौहब्बत नसीबोँ के खेल से
फिर मिटा क्यूँ रहा है लकीरोँ को हाथोँ से मेरे
uttam prastuti!
बना करते हैँ अगर रिश्ते सभी विश्वास की डोर से
फिर घटा ही क्युँ रहा है वो विश्वास को मेरे
waah
bahut khoob likha hai....vishwas banaye rakhiye....shubkamnaye
हाथ की लकीरें बनती हैं, बनाई जाती हैं. विश्वासं फलदायकं.
सुन्दर अति सुन्दर
एक डाक्टर जब पामिस्ट्री से गुज़रता हुआ कोई कविता लिखता है तो ऐसी सुंदर कविता का सृजन स्वाभाविक होता है अशोक भाई| बधाई| हमारे ब्लॉग पर भी उपस्थिति दर्ज करने की कृपा करें|
http://thalebaithe.blogspot.com
bahut sundar!!
कविता अच्छी लगी। धन्यवाद।
@प्रवीण पाण्डेय जी
@संगीता स्वरूप जी
@डाँ. अरुणा कपूर जी
@अर्चना धनवानी जी
@रश्मि प्रभा जी
आप सभी का ब्लोग पर आने तथा आपके स्नैह के लिए शुक्रिया जी।
@कुवँर कुसुमेश जी
@निर्मला कपिला जी
@मुकेश जी
@नवीन जी
@ भूषणजी
आप सभी का ब्लोग पर आने तथा आपके स्नैह के लिए हार्दिक धन्यवाद जी।
vishwas bana rahe!
sundar rachna!
shubhkamnayen!!!
वक्त की अगर कोई सीमा होती तो
वो कद्र करता हर जज्बात की मेरे...
वाह...बहुत अच्छा है.
वक्त की अगर कोई सीमा होती तो
वो कद्र करता हर जज्बात की मेरे...
वाह...बहुत अच्छा है.
माना कि बहुत कुछ पाया था खुदा से तूने
लेकिन क्या मकसद ए जिंदगी भी पाया है तूने
माना कि बहुत कुछ पाया था खुदा से तूने
लेकिन क्या मकसद ए जिंदगी भी पाया है तूने ?
बराए मेहरबानी आप रूखा शब्द को 'रुका' लिख कर दुरुस्त कर लें ।
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनाएं
4.5/10
ग़ज़ल ठीक-ठाक है लेकिन ज्यादा असर पैदा नहीं कर पायी. आखिर के तीनों शेर में एकरसता आ गयी है.
मिलती है सभी को अगर मौहब्बत नसीबोँ के खेल से
फिर मिटा क्यूँ रहा है लकीरोँ को हाथोँ से मेरे
आपकी ही तरह किसी ने कहा है - 'जिन्दगी प्यार की दो चार घड़ी होती है'
किसके हिस्से में कितना क्या देना है? ये तो ऊपर वाले ने निश्चित कर दिया. सुंदर अभिव्यक्ति !
@अनुपमा पाठक जी
@शाहिद मिर्जा जी
@डाँ. अनवर जमाल जी
@साधना जी
@उस्ताद जी
आप सभी का ब्लोग पर आने तथा अमूल्य सुझावो और उत्साहबर्धन के लिए बहुत- बहुत आभार जी।
वक्त की अगर कोई सीमा होती तो
वो कद्र करता हर जज्बात की मेरे ...
खूबसूरत शेर है ... ग़ज़ल अच्छी बन पड़ी है ..
डाक्टर साहब आपकी रचना में भाव पक्ष बहुत अच्छा है लेकिन तकनिकी पक्ष कमज़ोर है...मेरी बात का बुरा न मानते हुए मैं आप से गुज़ारिश करता हूँ के आप गज़ल के नियमों का अध्ययन करें और फिर लिखें इस से आप के लेखन में धार आ जायेगी...
लिखते रहें क्यूँ की लगातार लिखने से भी लेखन परिष्कृत होता है...
उम्मीद करता हूँ के आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे और अगर मेरी बात बुरी लगी हो तो मुझे क्षमा करेंगे.
नीरज
@ नीरज गोस्वामी जी आपकी प्रतिक्रिया बहुत सुखद लगी. जो बात मैं कहना चाहता था, वह बात आपने कह दी. रही बात बुरा मानने की तो .. वह रचनाकार/कलाकार क्या जो अपनी कमियों को न जानना चाहे. सृजन से जुड़े हर व्यक्ति को आलोचना का खुले दिल से स्वागत करना चाहिए.
इस तरह की सार्थक प्रतिक्रियाएं हों तो मेरी कोई जरूरत ही नहीं.
सही कहा है क्योँ मिटा रही हैँ वो लकीरोँ को हाथोँ से। सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई!
सही कहा है क्योँ मिटा रही हैँ वो लकीरोँ को हाथोँ से। सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई!
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