गुरुवार, सितंबर 08, 2011

दिन कुछ ऐसे गुजरता है कोई


दिन कुछ ऐसे गुजरता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई
हमको इस घर मेँ जानता है कोई

पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

फिर नज़र मेँ लहू के छीँटे हैँ
तुमको शायद मुघालता है कोई

देर से गूँजते हैँ 'अंजान' सन्नाटे
जैसे हमको पुकारता है कोई

7 टिप्पणियाँ:

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

ashok bhaai bhtrin gazal u r d grt..akhtar khan akela kota rajsthan

केवल राम ने कहा…

पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

वाह क्या बात है .....!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह, बहुत खूब।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

खूबसूरत रचना ..

S.VIKRAM ने कहा…

बढ़िया रचना ...:)

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह बेहतरीन !!!!

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत खूबसूरत अंदाज़ में पेश की गई है पोस्ट.....शुभकामनायें।