रविवार, अगस्त 08, 2010

चाँद की ख्वाहिश

कौन कहता है जमीँ सें,
छुआ नहीँ जा सकता आँसमान।

नहीँ था जब भूखा,इस तथ्य से था "अंजान";
चन्द्रमा भी लगता था मुझे प्रेयसी के समान ।।

शिकार को निकला था जंगल मेँ,
भूख से था मैँ परेशान।

गरिमा से ज्योति बिखेरता चन्द्रमा,
लगता था मुझे एक बड़ी रोटी के समान।।

5 टिप्पणियाँ:

Anupriya ने कहा…

Aati sundar rachan hai, bhookh mai esa hi hota hai

amlendra k singh ने कहा…

Wow your thoughts to good

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

जीवन के परमसत्य को बडी खूबसूरती से उकेरा है आपने, बधाई।
………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्लज्ज कारनामा.....

Dr. ashok priyaranjan ने कहा…

बहुत ही खुबसुरती से इतना कटु सत्य व्यक्त कर दिया हैँ। बधाई!

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत खूब, लाजबाब !