तुम ऐसे मेँ क्यूँ रुठ जाती हो?
सावन है सावन मेँ क्यूँ दूर जाती हो?
प्रिये तुम मुझे बहुत याद आती हो?
रातोँ को तनहाईयोँ मेँ क्यूँ छोड़ जाती हो?
मन मेँ मेरे तुम प्यास जगाती हो,
मगर दिल की धड़कन क्यूँ बढ़ाती हो?
पाँव की पायल रातोँ को छनकाती हो,
दिलोँ के तार क्यूँ छेड़ जाती हो?
तन, बदन तुम मेरा महका जाती हो?
खूश्बू की तरह दिल मेँ क्यूँ समाती हो?
16 टिप्पणियाँ:
कविता एक ही पहरे में.
सुंदर.
वास्तव मेँ सावन होता ही मनभावन हैँ।सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई
सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत खूबसूरती से विरह को कह दिया है ...
Sundar bhaav liye sundar rachana....Shubhkaamnaae!
बूढी पथराई आँखें .....रानीविशाल
ठीक कहा आपने - दिलों के तार क्यों छेड जाती हो.
विरह की सुन्दर अभिव्यक्ति है।आभार!
सावन बरसता तो है पर ......... विरह ली अग्नि को और ज्यादा प्रजवाल्लित कर देता है.
खूबसूरत अभिव्यक्ति ..
बहुत सुन्दर भाव भरे हैं…………………रक्षाबंधन की बधाई
तन, बदन तुम मेरा महका जाती हो
खूश्बू की तरह दिल मेँ क्यूँ समाती हो
बहुत ही भावपूर्ण रचना.... बेहद खूबसूरत!
पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए!
बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! इस शानदार और उम्दा रचना के लिए बधाई!
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है
मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।बधाई।
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